मोरि सुधारिहि सो सब भाँती। जासु कृपा नहिं कृपाँ अघाती॥
राम सुस्वामि कुसेवकु मोसो। निज दिसि देखि दयानिधि पोसो॥2॥
भावार्थ:-वे (श्री रामजी)
मेरी (बिगड़ी) सब तरह से
सुधार लेंगे, जिनकी कृपा कृपा करने
से नहीं अघाती। राम
से उत्तम स्वामी और मुझ सरीखा
बुरा सेवक! इतने पर भी
उन दयानिधि ने अपनी ओर
देखकर मेरा पालन किया
है॥2॥
लोकहुँ बेद सुसाहिब रीती। बिनय सुनत पहिचानत प्रीती॥
गनी गरीब ग्राम नर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर॥3॥
भावार्थ:-लोक और वेद
में भी अच्छे स्वामी
की यही रीति प्रसिद्ध
है कि वह विनय
सुनते ही प्रेम को
पहचान लेता है। अमीर-गरीब, गँवार-नगर निवासी, पण्डित-मूर्ख, बदनाम-यशस्वी॥3॥
सुकबि कुकबि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी॥
साधु सुजान सुसील नृपाला। ईस अंस भव परम कृपाला॥4॥
भावार्थ:-सुकवि-कुकवि, सभी नर-नारी
अपनी-अपनी बुद्धि के
अनुसार राजा की सराहना
करते हैं और साधु,
बुद्धिमान, सुशील, ईश्वर के अंश से
उत्पन्न कृपालु राजा-॥4॥
सुनि सनमानहिं सबहि सुबानी। भनिति भगति नति गति पहिचानी॥
यह प्राकृत महिपाल सुभाऊ। जान सिरोमनि कोसलराऊ॥5॥
भावार्थ:-सबकी सुनकर और
उनकी वाणी, भक्ति, विनय और चाल
को पहचानकर सुंदर (मीठी) वाणी से सबका
यथायोग्य सम्मान करते हैं। यह
स्वभाव तो संसारी राजाओं
का है, कोसलनाथ श्री
रामचन्द्रजी तो चतुरशिरोमणि हैं॥5॥
रीझत राम सनेह निसोतें। को जग मंद मलिनमति मोतें॥6॥
भावार्थ:-श्री रामजी तो
विशुद्ध प्रेम से ही रीझते
हैं, पर जगत में
मुझसे बढ़कर मूर्ख और मलिन बुद्धि
और कौन होगा?॥6॥
दोहा :
सठ सेवक की प्रीति रुचि रखिहहिं राम कृपालु।
उपल किए जलजान जेहिं सचिव सुमति कपि भालु॥28 क॥
भावार्थ:-तथापि कृपालु श्री रामचन्द्रजी मुझ
दुष्ट सेवक की प्रीति
और रुचि को अवश्य
रखेंगे, जिन्होंने पत्थरों को जहाज और
बंदर-भालुओं को बुद्धिमान मंत्री
बना लिया॥28 (क)॥
हौंहु कहावत सबु कहत राम सहत उपहास।
साहिब सीतानाथ सो सेवक तुलसीदास॥28 ख॥
भावार्थ:-सब लोग मुझे
श्री रामजी का सेवक कहते
हैं और मैं भी
(बिना लज्जा-संकोच के) कहलाता हूँ
(कहने वालों का विरोध नहीं
करता), कृपालु श्री रामजी इस
निन्दा को सहते हैं
कि श्री सीतानाथजी, जैसे
स्वामी का तुलसीदास सा
सेवक है॥28 (ख)॥
चौपाई :
अति बड़ि मोरि ढिठाई खोरी। सुनि अघ नरकहुँ नाक सकोरी॥
समुझि सहम मोहि अपडर अपनें। सो सुधि राम कीन्हि नहिं सपनें॥1॥
भावार्थ:-यह मेरी बहुत
बड़ी ढिठाई और दोष है,
मेरे पाप को सुनकर
नरक ने भी नाक
सिकोड़ ली है (अर्थात
नरक में भी मेरे
लिए ठौर नहीं है)। यह समझकर
मुझे अपने ही कल्पित
डर से डर हो
रहा है, किन्तु भगवान
श्री रामचन्द्रजी ने तो स्वप्न
में भी इस पर
(मेरी इस ढिठाई और
दोष पर) ध्यान नहीं
दिया॥1॥
सुनि अवलोकि सुचित चख चाही। भगति मोरि मति स्वामि सराही॥
कहत नसाइ होइ हियँ नीकी। रीझत राम जानि जन जी की॥2॥
भावार्थ:-वरन मेरे प्रभु
श्री रामचन्द्रजी ने तो इस
बात को सुनकर, देखकर
और अपने सुचित्त रूपी
चक्षु से निरीक्षण कर
मेरी भक्ति और बुद्धि की
(उलटे) सराहना की, क्योंकि कहने
में चाहे बिगड़ जाए
(अर्थात् मैं चाहे अपने
को भगवान का सेवक कहता-कहलाता रहूँ), परन्तु हृदय में अच्छापन
होना चाहिए। (हृदय में तो
अपने को उनका सेवक
बनने योग्य नहीं मानकर पापी
और दीन ही मानता
हूँ, यह अच्छापन है।)
श्री रामचन्द्रजी भी दास के
हृदय की (अच्छी) स्थिति
जानकर रीझ जाते हैं॥2॥
रहति न प्रभु चित चूक किए की। करत सुरति सय बार हिए की॥
जेहिं अघ बधेउ ब्याध जिमि बाली। फिरि सुकंठ सोइ कीन्हि कुचाली॥3॥
भावार्थ:-प्रभु के चित्त में
अपने भक्तों की हुई भूल-चूक याद नहीं
रहती (वे उसे भूल
जाते हैं) और उनके
हृदय (की अच्छाई-नेकी)
को सौ-सौ बार
याद करते रहते हैं।
जिस पाप के कारण
उन्होंने बालि को व्याध
की तरह मारा था,
वैसी ही कुचाल फिर
सुग्रीव ने चली॥3॥
सोइ करतूति बिभीषन केरी। सपनेहूँ सो न राम हियँ हेरी॥
ते भरतहि भेंटत सनमाने। राजसभाँ रघुबीर बखाने॥4॥
भावार्थ:-वही करनी विभीषण
की थी, परन्तु श्री
रामचन्द्रजी ने स्वप्न में
भी उसका मन में
विचार नहीं किया। उलटे
भरतजी से मिलने के
समय श्री रघुनाथजी ने
उनका सम्मान किया और राजसभा
में भी उनके गुणों
का बखान किया॥4॥
दोहा :
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सील निधान॥29 क॥
भावार्थ:-प्रभु (श्री रामचन्द्रजी) तो
वृक्ष के नीचे और
बंदर डाली पर (अर्थात
कहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम सच्चिदानन्दघन परमात्मा श्री रामजी और
कहाँ पेड़ों की शाखाओं पर
कूदने वाले बंदर), परन्तु
ऐसे बंदरों को भी उन्होंने
अपने समान बना लिया।
तुलसीदासजी कहते हैं कि
श्री रामचन्द्रजी सरीखे शीलनिधान स्वामी कहीं भी नहीं
हैं॥29 (क)॥
राम निकाईं रावरी है सबही को नीक।
जौं यह साँची है सदा तौ नीको तुलसीक॥29 ख॥
भावार्थ:-हे श्री रामजी!
आपकी अच्छाई से सभी का
भला है (अर्थात आपका
कल्याणमय स्वभाव सभी का कल्याण
करने वाला है) यदि
यह बात सच है
तो तुलसीदास का भी सदा
कल्याण ही होगा॥29 (ख)॥
एहि बिधि निज गुन दोष कहि सबहि बहुरि सिरु नाइ।
बरनउँ रघुबर बिसद जसु सुनि कलि कलुष नसाइ॥29 ग॥
भावार्थ:-इस प्रकार अपने
गुण-दोषों को कहकर और
सबको फिर सिर नवाकर
मैं श्री रघुनाथजी का
निर्मल यश वर्णन करता
हूँ, जिसके सुनने से कलियुग के
पाप नष्ट हो जाते
हैं॥29 (ग)॥
चौपाई :
जागबलिक जो कथा सुहाई। भरद्वाज मुनिबरहि सुनाई॥
कहिहउँ सोइ संबाद बखानी। सुनहुँ सकल सज्जन सुखु मानी॥1॥
भावार्थ:-मुनि याज्ञवल्क्यजी ने
जो सुहावनी कथा मुनिश्रेष्ठ भरद्वाजजी
को सुनाई थी, उसी संवाद
को मैं बखानकर कहूँगा,
सब सज्जन सुख का अनुभव
करते हुए उसे सुनें॥1॥
संभु कीन्ह यह चरित सुहावा। बहुरि कृपा करि उमहि सुनावा॥
सोइ सिव कागभुसुंडिहि दीन्हा। राम भगत अधिकारी चीन्हा॥2॥
भावार्थ:-शिवजी ने पहले इस
सुहावने चरित्र को रचा, फिर
कृपा करके पार्वतीजी को
सुनाया। वही चरित्र शिवजी
ने काकभुशुण्डिजी को रामभक्त और
अधिकारी पहचानकर दिया॥2॥
तेहि सन जागबलिक पुनि पावा। तिन्ह पुनि भरद्वाज प्रति गावा॥
ते श्रोता बकता समसीला। सवँदरसी जानहिं हरिलीला॥3॥
भावार्थ:-उन काकभुशुण्डिजी से
फिर याज्ञवल्क्यजी ने पाया और
उन्होंने फिर उसे भरद्वाजजी
को गाकर सुनाया। वे
दोनों वक्ता और श्रोता (याज्ञवल्क्य
और भरद्वाज) समान शील वाले
और समदर्शी हैं और श्री
हरि की लीला को
जानते हैं॥3॥
जानहिं तीनि काल निज ग्याना। करतल गत आमलक समाना॥
औरउ जे हरिभगत सुजाना। कहहिं सुनहिं समुझहिं बिधि नाना॥4॥
भावार्थ:-वे अपने ज्ञान
से तीनों कालों की बातों को
हथेली पर रखे हुए
आँवले के समान (प्रत्यक्ष)
जानते हैं। और भी
जो सुजान (भगवान की लीलाओं का
रहस्य जानने वाले) हरि भक्त हैं,
वे इस चरित्र को
नाना प्रकार से कहते, सुनते
और समझते हैं॥4॥
दोहा :
मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सो सूकरखेत।
समुझी नहिं तसि बालपन तब अति रहेउँ अचेत॥30 क॥
भावार्थ:-फिर वही कथा
मैंने वाराह क्षेत्र में अपने गुरुजी
से सुनी, परन्तु उस समय मैं
लड़कपन के कारण बहुत
बेसमझ था, इससे उसको
उस प्रकार (अच्छी तरह) समझा नहीं॥30
(क)॥
श्रोता बकता ग्याननिधि कथा राम कै गूढ़।
किमि समुझौं मैं जीव जड़ कलि मल ग्रसित बिमूढ़॥30ख॥
भावार्थ:-श्री रामजी की
गूढ़ कथा के वक्ता
(कहने वाले) और श्रोता (सुनने
वाले) दोनों ज्ञान के खजाने (पूरे
ज्ञानी) होते हैं। मैं
कलियुग के पापों से
ग्रसा हुआ महामूढ़ जड़
जीव भला उसको कैसे
समझ सकता था?॥30
ख॥
चौपाई :
तदपि कही गुर बारहिं बारा। समुझि परी कछु मति अनुसारा॥
भाषाबद्ध करबि मैं सोई। मोरें मन प्रबोध जेहिं होई॥1॥
भावार्थ:-तो भी गुरुजी
ने जब बार-बार
कथा कही, तब बुद्धि
के अनुसार कुछ समझ में
आई। वही अब मेरे
द्वारा भाषा में रची
जाएगी, जिससे मेरे मन को
संतोष हो॥1॥
जस कछु बुधि बिबेक बल मेरें। तस कहिहउँ हियँ हरि के प्रेरें॥
निज संदेह मोह भ्रम हरनी। करउँ कथा भव सरिता तरनी॥2॥
भावार्थ:-जैसा कुछ मुझमें
बुद्धि और विवेक का
बल है, मैं हृदय
में हरि की प्रेरणा
से उसी के अनुसार
कहूँगा। मैं अपने संदेह,
अज्ञान और भ्रम को
हरने वाली कथा रचता
हूँ, जो संसार रूपी
नदी के पार करने
के लिए नाव है॥2॥
बुध बिश्राम सकल जन रंजनि। रामकथा कलि कलुष बिभंजनि॥
रामकथा कलि पंनग भरनी। पुनि बिबेक पावक कहुँ अरनी॥3॥
भावार्थ:-रामकथा पण्डितों को विश्राम देने
वाली, सब मनुष्यों को
प्रसन्न करने वाली और
कलियुग के पापों का
नाश करने वाली है।
रामकथा कलियुग रूपी साँप के
लिए मोरनी है और विवेक
रूपी अग्नि के प्रकट करने
के लिए अरणि (मंथन
की जाने वाली लकड़ी)
है, (अर्थात इस कथा से
ज्ञान की प्राप्ति होती
है)॥3॥
रामकथा कलि कामद गाई। सुजन सजीवनि मूरि सुहाई॥
सोइ बसुधातल सुधा तरंगिनि। भय भंजनि भ्रम भेक भुअंगिनि॥4॥
भावार्थ:-रामकथा कलियुग में सब मनोरथों
को पूर्ण करने वाली कामधेनु
गौ है और सज्जनों
के लिए सुंदर संजीवनी
जड़ी है। पृथ्वी पर
यही अमृत की नदी
है, जन्म-मरण रूपी
भय का नाश करने
वाली और भ्रम रूपी
मेंढकों को खाने के
लिए सर्पिणी है॥4॥
असुर सेन सम नरक निकंदिनि। साधु बिबुध कुल हित गिरिनंदिनि॥
संत समाज पयोधि रमा सी। बिस्व भार भर अचल छमा सी॥5॥
भावार्थ:-यह रामकथा असुरों
की सेना के समान
नरकों का नाश करने
वाली और साधु रूप
देवताओं के कुल का
हित करने वाली पार्वती
(दुर्गा) है। यह संत-समाज रूपी क्षीर
समुद्र के लिए लक्ष्मीजी
के समान है और
सम्पूर्ण विश्व का भार उठाने
में अचल पृथ्वी के
समान है॥5॥
जम गन मुहँ मसि जग जमुना सी। जीवन मुकुति हेतु जनु कासी॥
रामहि प्रिय पावनि तुलसी सी। तुलसिदास हित हियँ हुलसी सी॥6॥
भावार्थ:-यमदूतों के मुख पर
कालिख लगाने के लिए यह
जगत में यमुनाजी के
समान है और जीवों
को मुक्ति देने के लिए
मानो काशी ही है।
यह श्री रामजी को
पवित्र तुलसी के समान प्रिय
है और तुलसीदास के
लिए हुलसी (तुलसीदासजी की माता) के
समान हृदय से हित
करने वाली है॥6॥
सिवप्रिय मेकल सैल सुता सी। सकल सिद्धि सुख संपति रासी॥
सदगुन सुरगन अंब अदिति सी। रघुबर भगति प्रेम परमिति सी॥7॥
भावार्थ:-यह रामकथा शिवजी
को नर्मदाजी के समान प्यारी
है, यह सब सिद्धियों
की तथा सुख-सम्पत्ति
की राशि है। सद्गुण
रूपी देवताओं के उत्पन्न और
पालन-पोषण करने के
लिए माता अदिति के
समान है। श्री रघुनाथजी
की भक्ति और प्रेम की
परम सीमा सी है॥7॥
दोहा :
रामकथा मंदाकिनी चित्रकूट चित चारु।
तुलसी सुभग सनेह बन सिय रघुबीर बिहारु॥31॥
भावार्थ:-तुलसीदासजी कहते हैं कि
रामकथा मंदाकिनी नदी है, सुंदर
(निर्मल) चित्त चित्रकूट है और सुंदर
स्नेह ही वन है,
जिसमें श्री सीतारामजी विहार
करते हैं॥31॥
चौपाई :
रामचरित चिंतामति चारू। संत सुमति तिय सुभग सिंगारू॥
जग मंगल गुनग्राम राम के। दानि मुकुति धन धरम धाम के॥1॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी का
चरित्र सुंदर चिन्तामणि है और संतों
की सुबुद्धि रूपी स्त्री का
सुंदर श्रंगार है। श्री रामचन्द्रजी
के गुण-समूह जगत्
का कल्याण करने वाले और
मुक्ति, धन, धर्म और
परमधाम के देने वाले
हैं॥1॥
सदगुर ग्यान बिराग जोग के। बिबुध बैद भव भीम रोग के॥
जननि जनक सिय राम प्रेम के। बीज सकल ब्रत धरम नेम के॥2॥
भावार्थ:-ज्ञान, वैराग्य और योग के
लिए सद्गुरु हैं और संसार
रूपी भयंकर रोग का नाश
करने के लिए देवताओं
के वैद्य (अश्विनीकुमार) के समान हैं।
ये श्री सीतारामजी के
प्रेम के उत्पन्न करने
के लिए माता-पिता
हैं और सम्पूर्ण व्रत,
धर्म और नियमों के
बीज हैं॥2॥
समन पाप संताप सोक के। प्रिय पालक परलोक लोक के॥
सचिव सुभट भूपति बिचार के। कुंभज लोभ उदधि अपार के॥3॥
भावार्थ:-पाप, संताप और
शोक का नाश करने
वाले तथा इस लोक
और परलोक के प्रिय पालन
करने वाले हैं। विचार
(ज्ञान) रूपी राजा के
शूरवीर मंत्री और लोभ रूपी
अपार समुद्र के सोखने के
लिए अगस्त्य मुनि हैं॥3॥
काम कोह कलिमल करिगन के। केहरि सावक जन मन बन के॥
अतिथि पूज्य प्रियतम पुरारि के। कामद घन दारिद दवारि के॥4॥
भावार्थ:-भक्तों के मन रूपी
वन में बसने वाले
काम, क्रोध और कलियुग के
पाप रूपी हाथियों को
मारने के लिए सिंह
के बच्चे हैं। शिवजी के
पूज्य और प्रियतम अतिथि
हैं और दरिद्रता रूपी
दावानल के बुझाने के
लिए कामना पूर्ण करने वाले मेघ
हैं॥4॥
मंत्र महामनि बिषय ब्याल के। मेटत कठिन कुअंक भाल के॥
हरन मोह तम दिनकर कर से। सेवक सालि पाल जलधर से॥5॥
भावार्थ:-विषय रूपी साँप
का जहर उतारने के
लिए मन्त्र और महामणि हैं।
ये ललाट पर लिखे
हुए कठिनता से मिटने वाले
बुरे लेखों (मंद प्रारब्ध) को
मिटा देने वाले हैं।
अज्ञान रूपी अन्धकार को
हरण करने के लिए
सूर्य किरणों के समान और
सेवक रूपी धान के
पालन करने में मेघ
के समान हैं॥5॥
अभिमत दानि देवतरु बर से। सेवत सुलभ सुखद हरि हर से॥
सुकबि सरद नभ मन उडगन से। रामभगत जन जीवन धन से॥6॥
भावार्थ:-मनोवांछित वस्तु देने में श्रेष्ठ
कल्पवृक्ष के समान हैं
और सेवा करने में
हरि-हर के समान
सुलभ और सुख देने
वाले हैं। सुकवि रूपी
शरद् ऋतु के मन
रूपी आकाश को सुशोभित
करने के लिए तारागण
के समान और श्री
रामजी के भक्तों के
तो जीवन धन ही
हैं॥6॥
सकल सुकृत फल भूरि भोग से। जग हित निरुपधि साधु लोग से॥
सेवक मन मानस मराल से। पावन गंग तरंग माल से॥7॥
भावार्थ:-सम्पूर्ण पुण्यों के फल महान
भोगों के समान हैं।
जगत का छलरहित (यथार्थ)
हित करने में साधु-संतों के समान हैं।
सेवकों के मन रूपी
मानसरोवर के लिए हंस
के समान और पवित्र
करने में गंगाजी की
तरंगमालाओं के समान हैं॥7॥
दोहा :
कुपथ कुतरक कुचालि कलि कपट दंभ पाषंड।
दहन राम गुन ग्राम जिमि इंधन अनल प्रचंड॥32 क॥
भावार्थ:-श्री रामजी के
गुणों के समूह कुमार्ग,
कुतर्क, कुचाल और कलियुग के
कपट, दम्भ और पाखण्ड
को जलाने के लिए वैसे
ही हैं, जैसे ईंधन
के लिए प्रचण्ड अग्नि॥32
(क)॥
रामचरित राकेस कर सरिस सुखद सब काहु।
सज्जन कुमुद चकोर चित हित बिसेषि बड़ लाहु॥32 ख॥
भावार्थ:-रामचरित्र पूर्णिमा के चन्द्रमा की
किरणों के समान सभी
को सुख देने वाले
हैं, परन्तु सज्जन रूपी कुमुदिनी और
चकोर के चित्त के
लिए तो विशेष हितकारी
और महान लाभदायक हैं॥32
(ख)॥
चौपाई :
कीन्हि प्रस्न जेहि भाँति भवानी। जेहि बिधि संकर कहा बखानी॥
सो सब हेतु कहब मैं गाई। कथा प्रबंध बिचित्र बनाई॥1॥
भावार्थ:-जिस प्रकार श्री
पार्वतीजी ने श्री शिवजी
से प्रश्न किया और जिस
प्रकार से श्री शिवजी
ने विस्तार से उसका उत्तर
कहा, वह सब कारण
मैं विचित्र कथा की रचना
करके गाकर कहूँगा॥1॥
जेहिं यह कथा सुनी नहिं होई। जनि आचरजु करै सुनि सोई॥
कथा अलौकिक सुनहिं जे ग्यानी। नहिं आचरजु करहिं अस जानी॥2॥
रामकथा कै मिति जग नाहीं। असि प्रतीति तिन्ह के मन माहीं॥
नाना भाँति राम अवतारा। रामायन सत कोटि अपारा॥3॥
भावार्थ:-जिसने यह कथा पहले
न सुनी हो, वह
इसे सुनकर आश्चर्य न करे। जो
ज्ञानी इस विचित्र कथा
को सुनते हैं, वे यह
जानकर आश्चर्य नहीं करते कि
संसार में रामकथा की
कोई सीमा नहीं है
(रामकथा अनंत है)।
उनके मन में ऐसा
विश्वास रहता है। नाना
प्रकार से श्री रामचन्द्रजी
के अवतार हुए हैं और
सौ करोड़ तथा अपार रामायण
हैं॥2-3॥
कलपभेद हरिचरित सुहाए। भाँति अनेक मुनीसन्ह गाए॥
करिअ न संसय अस उर आनी। सुनिअ कथा सादर रति मानी॥4॥
भावार्थ:-कल्पभेद के अनुसार श्री
हरि के सुंदर चरित्रों
को मुनीश्वरों ने अनेकों प्रकार
से गया है। हृदय
में ऐसा विचार कर
संदेह न कीजिए और
आदर सहित प्रेम से
इस कथा को सुनिए॥4॥
दोहा :
राम अनंत अनंत गुन अमित कथा बिस्तार।
सुनि आचरजु न मानिहहिं जिन्ह कें बिमल बिचार॥33॥
भावार्थ:-श्री रामचन्द्रजी अनन्त
हैं, उनके गुण भी
अनन्त हैं और उनकी
कथाओं का विस्तार भी
असीम है। अतएव जिनके
विचार निर्मल हैं, वे इस
कथा को सुनकर आश्चर्य
नहीं मानेंगे॥3॥
चौपाई :
एहि बिधि सब संसय करि दूरी। सिर धरि गुर पद पंकज धूरी॥
पुनि सबही बिनवउँ कर जोरी। करत कथा जेहिं लाग न खोरी॥1॥
भावार्थ:-इस प्रकार सब
संदेहों को दूर करके
और श्री गुरुजी के
चरणकमलों की रज को
सिर पर धारण करके
मैं पुनः हाथ जोड़कर
सबकी विनती करता हूँ, जिससे
कथा की रचना में
कोई दोष स्पर्श न
करने पावे॥1॥
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